Thursday, September 9, 2010

मेरे हिस्से की रोटी / मेरे हिस्से की हवा

अभी - अभी मेरे हिस्से का आसमान खाली हुआ है ,
उनके जुल्मों के गर्दो - गुबार से
अभी-  अभी मेरे हिस्से की हवा  मेरे पास से गुजरी है ,
आज़ाद  रोशन - ख्यालों   के साथ
अभी - अभी  मेरे हिस्से की रोटी मुझे मिली है ,
पूरे-पूरे  स्वाद के साथ .
अभी - अभी हुआ हूँ जिंदा ,
एक मुक्कमल आदमी के साथ .

Saturday, July 24, 2010

मेरी दुनिया मेरे आगे -------

"पारम्परिक समाजवाद को ----- एक ऐसी अर्थ-वयवस्था जो आवश्क रूप से सामाजिक स्वामित्व और उत्पादन , वितरण और विनिमय के आधारों पर ही खरी हो --- सोवियत प्रयोग कि असफलता कितना संदेहास्पद बनती है , यह दूसरा बड़ा सवाल है . सिधांत एस तरह कि योजना तर्कसंगत है , एस बात को तो अर्थशास्त्रियों में प्रथम विश्वयुद्ध के पहले से स्वीकार कर लिया था , लेकिन विचित्र बात यह है कि इस  सिधांत का विकास समाजवादियों ने नहीं बल्कि उन शुद्ध अर्थशास्त्रियों ने किया था जो समाजवादी नहीं थे . इसमें व्यावहारिक रूप से कुछ कठिनायाँ , विशेस रूप से नौकरशाही के द्वारा आने वाली थी, यह बहुत साफ था .  ------- "

एरिक होब्स्बोम कि किताब से

Sunday, July 4, 2010

लेकिन मेरा घर -----

 कलह और सुलह के बीच एक बात मुकमल तौर पर जाहिर थी कि राजेन्द्र यादव की तस्वीर अपना ऐसा महत्व बनाये हुए है , जिससे डॉक्टर साहब कि पत्नी का रचनातमक लगाव है .लगता है पति कि जमींन छेंक रही है तस्वीर --- ऐसा क्या है एस फोटो में ? सक्रियता कि पुकार , गतिशीलता का जज्बा और मेरे पति को घर  से बहार निकलनेवाली स्त्रियाँ पसंद नहीं .  
                                                                                                        गुडिया  भीतर   गुडिया

Wednesday, February 24, 2010

मुझे मेरी अंगूठी लौटा दो .

देश के बदलते हुए सरोकारों  में अंगूठी कि बात एक बेकार बात है .
लेकिन जब अंगूठी किसी आस्था और विश्वाश  के साथ जुडा हो , और किसी पुरानी याद कि तरह जिस्म में पबस्त हो जाये तब अंगूठी कि बात एक जरूरी बात हो जाती है .
बजट के दौरान अंगूठी कि बात --- हमे हो सकता है थोडा भटकाए लेकिन यह भटकाव मेरे इर्द - गिर्द के लिए जरूरी है .
आज दोस्तों से बात होते होते ----- किसी पत्रिका  के आगामी अंकों के विशेषांक को लेकर होने वाली तयारी को लेकर होने लगी कि ---- अगला अंक पत्रिका का बेवफाई पर निकल रहा है  .
सोचना चाहिए हमे कि उर्दू ग़ज़लों कि बेवफाई जब हिंदी कहानियों  में आयेगी तो क्या होगा.
कितने लोग अपनी अंगूठी मागने के लिए कई -  कई किलोमीटर कि यात्रा करेगें .

Thursday, February 4, 2010

रामबिरछा कि याद -- जैसे पीपल कि याद .

न्यायालय का एक दिन , मेरे लिए इतनी परेशानी का रहा कि अपने गावों के अनाम लोगों कि याद करा गया , जो सतु , चबेना बंधकर दिन - दिन भर  न्यायालय कि चक्कर लगाते अपनी जिन्दगी कि शाम कर देते हैं .
अपने गावं के अनाम लोगों के नाम एक चिट्ठी -------- कोई  एक नाम के साथ

     प्रिय रामबिरछा ,
उम्मीद है तुम्हारी  बेटी   जिसका नाम मैं भूल गया हूँ ( भूल कि माफ़ी  मागंता हूँ )  अच्छी होगी . याद है तुम्हे , जब तुम कई बरसों बाद मुझे गावं के किराने कि दुकान में मिले थे , मैं तुम्हे  पहचान  नहीं पाया था , और तुम लगातार मुझे देखते जा रहे थे . और जब तुमने बताया कि --- भूल गए बाबु मैंने आपको अपने कंधे पर घुमाया है . मैं घबरा गया था ये सुनकर , ग्लानी हुई , और लगभग  हकलाते हुए मैंने तुमसे पूछा  था ---- कैसे हैं रामबिरछ जी ? और फिर तुमने ढेरों बात बताई थी गावं के बारे में , सब मैं सुनता जा रहा था ----- और सोचता जा रहा था --- बेकार में मैं शहर में रहता हूँ ( क्यूँ ना गावं में दुबारा आया जाये ). मुझे याद आ रहा था कि जब मैं अपने पिता जी  के साथ शहर आने के लिए अपने परिवार के साथ गावं से निकला था , तुम साथ - साथ स्टेशन तक आये थे , तुमने शराब पी रखी थी  , माथे पर सामान रखे तुम लड़खड़ा रहे थे . पीता जी से नशे कि हालत में कई बात किये जा रहे थे , जो तुम होश में कभी नहीं कर सकते थे . वो सब बात मैं आज तुम्हे  याद दिलाना चाहता हूँ  , लेकिन वो सब मिलकर बताना चाहता हूँ ( नहीं जानता कि तुम आज जीवित हो या नहीं ) . तुमने उस दिन स्टेशन पर बताया था कि कैसे  तुम आजकल एक केश में हर महीने कोर्ट जाते हो , कितना खर्चा  हो जाता है , कैसे  वो झूठा केश तुम्हे चैन से रहने नहीं देता , तुम कैसे भूखे पेट दिन - दिन भर  कोर्ट में चक्कर लगाते रहते हो , और निराश होकर शाम होते घर  पहुचते हो , किसी से कुछ कहने का मन नहीं करता है .
आज कई बरस के बाद रामबिरछा मेरा भी वही हाल है , तुमरे पास पैसे नहीं थे , झूठा केश था , सच कहूँ अगर तुम्हारे  पास पैसे भी होते ना उस दिन तब भी तुम भूखे ही रहते , क्यूंकि कोई भी इमानदार आदमी कोर्ट में खाना खा ही नहीं सकता  , जैसे कि मैं नहीं खा सका , पैसे होते हुए भी .

रामबिरछा मैं इस चिट्ठी को , बहुत भारी नहीं करना चाहता , बस इतना कि आज तुम्हारी बहुत  याद आ रही है , और याद इसलिए नहीं कि मैं बहुत तकलीफ महसुश  कर रहा हूँ , बल्कि यह कि उस दिन मैं तुम्हारी  तकलीफ क्यूँ नहीं जान सका . क्यूँ नहीं ?

                                                                                                                           तुम्हारा
                                                                                                                           --------------

Tuesday, February 2, 2010

--- और तब भी खाता और पीता हूँ

यह समय वह समय ----- "एक  जूता पैर में और एक हाथ" में का है . अपने विश्वाशघाती समय में , जब की अपने आचरणों में घोर अलोकतांत्रिक होते हुए , अपने लेखन में, अपने भाषण में लगातार लोकतान्त्रिक बने रहने के ढोंग के साथ जीता मनुष्य मेरे साथ / मेरे पास पसरा हुआ है . उसका यह पसरना किसी आक्टोपस की तरह का है जो अपने पंजे में सबकुछ को समेटते हुए रक्त-मांस   को  चूस कर छोड़  देता है ; असल में यह एक वर्गीय चरित्र की तरह हमारे समय में विकसित हो चुका है .
एक दूसरा वर्ग जो रीढ़ - विहीन है --- जिससे  न ठीक से समर्थन में कुछ बोलना आता है और ना ही विरोध में . जिसके मुहं खोलने मात्र से घिन आने लगती है .
एक और वर्ग है --- जिसे रात - रात भर  नींद नहीं आती है. उसके दिमाग में ऐसा क्या  है जो उसे सोने नहीं देता -- ? उसके दिमाग में कुछ चीजे लगातार  रात भर  चक्कर लगाती है.  जरूरी नहीं की वह मुक्तिबोध की तरह का आदमी हो , या उनकी तरह के  वर्ग का हो . 
आजकल वह आदमी मेरे दिमाग में लगातार चक्कर लगाता है ; और मैं यह कविता बार  - बार पढ़ता हूँ -----------

" सच है कि मैं अब भी रोटियों से वंचित नहीं हुआ हूँ
मगर , यकीन करो , यह केवल संजोग है .
मैं कुछ भी करूँ , मुझे कोई अधिकार नहीं पेट भरने का .
 
यह एक संजोग है कि मैं बचा रह गया हूँ .
( जिस दिन तक़दीर दगा देगी , मैं भी गुजर जाऊंगा .)
मुझसे कहा  जाता है , खावो और मौज करो, खुश रहो
कैसे  खुश रहूँ , पिउं, मौज करूँ , ऐसे  समय में .
यह रोटी का टुकड़ा जो मेरे हिस्से है ,
किसी भूखे का छिना  हुआ कौर था ,
यह पानी का गिलास जो थामे हुए हूँ मैं हाथ में
प्यास से मरते हुए आदमी से
छिना ही तो गया था

और तब भी खाता और पीता हूँ  .

                                                                    
( बर्तोल्त ब्रेख्त पर मेरे द्वारा लिखे जा रहे लेख का एक हिस्सा है )

Sunday, January 31, 2010

उम्मीद को नाउम्मीद में बदलने की साजिश

आवाज़ जब लगाई जाये तो , तो फिर सुनी  जाये . जिस बात के लिए आवाज़ लगाए जाये , उसी का संदर्भ लिया जाये . महात्मा गाँधी के सहादत दिवस के दुसरे दिन जब हम एक साथ बात  कर रहे थे --- तब कई लोगों ने बात को कई -  कई बार मुद्दों को बदलने की कोशिश की .  मुद्दा ये की कल एक अध्यापक को निकाले जाने के मसले को लेकर हम बात कर रहे थे , और लोग अपने कंप्यूटर की बात करने लगे की वो कैसे काम करता है .
दरअसल मामला उम्मीद को नाउम्मीद में बदल देने की साजिश  का है . जब भी कोई उम्मीद की जाती है या बनाई जाती है -- तमाम विरोधी हवाएं उसे नाउम्मीद की तरफ ले जाने की कवायद शुरु कर देती है . पिछले दिनों हमारे विश्वविद्यालय में कुछ इसी तरह की उम्मीदी और नाउम्मीदी  की बात शुरु हो गई थी .
सम्झुता  परस्त लोगों के खिलाफ हम एक मुहीम चलायें .

Thursday, January 28, 2010

इमानदार हैं तो सावधान रहिये

यदि आप इमानदार हैं तो सावधान रहिये , आपकी इमानदारी को शाजिशन बईमानी में बदला जा सकता है . आपके चारो तरफ के लोग आपके इरादों , मंतव्यों को तोड़ने  की हर संभव कोशिश में अपना योगदान देना चाहेगा .
और हाँ - अगर आप किसी सत्ता के विरोधी हैं , और विरोध का कोई इमानदार कारण है , तो ज्यादा  सावधान रहने की जरूरत है .  राष्ट्र- राज्य के भीतर रहकर विरोध करना आपने आप में एक बहादुरी है . लेकिन आपको यह देखना होगा की राष्ट्र - राज्य आपके इस  विरोध को किस तरह से लेता है. आपके इस विरोध में और कितने लोग साथ हैं , ये बहुत मायने रखता है ---- "एकला चलो" के नारे को याद करते हुए यह भी याद रखना होगा की  "अकेला चना भाडं नहीं फोड़ता " .
आजकल एक इमानदार आदमी रोज मेरे इर्द- गिर्द घूमता है , परेशां रहता है ---- असल में वो कुछ अच्छा करना चाहता है .
आपसे उसके समर्थन में आने की अपील करता हूँ .

Sunday, January 24, 2010

सही और सरल आदमी की परेशानी

विश्वविद्यालय  को क्या बहुरास्ट्रीय कंपनी होना चाहिए. शिक्षा संस्थान  में पसरते हुए गैर जवाबदेही बाले माहौल  में यह  बहस शुरु हो चुका है .
कृपापात्र  लोगों की काहिली और संष्ठानो से उपजे भरष्ट  आचरणों ने एक ऐसे समय का निर्माण किया है जहाँ सही और सरल लोगों के लिए कोई जगह नहीं बची है .
यह खबर गर्म है की ऐसे सही और सरल लोगों को काहिल लोगों द्वारा परेशां करने की दुरभिसंधि रची जा रही है.
बहुत जल्द ही उसके परिणाम देखने  को मिल सकते हैं.
समय पर काम को खतम करने बाले लोग मुर्ख होगें और परेशां होगें.वे  सता की  कुर्सी के इर्द - गिर्द , रहने वाले चापलूस के सामने निहायत ही बौने  और बेकार साबित होगें .
आएये चापलूसी , सत्ता की दलाली करने बाले के विरुद्ध एक जनमत तैयार  करें.

Thursday, January 21, 2010

kitne anjan bante hain log

आज सुबह हैती के भूकंप , अफगानिस्तान पर हमलों के साथ अपने पड़ोस में हुए स्त्री - शोषण के मुद्दों पर बात कर रहा था , हैरानी है की लोग एस सबसे अंजन बने रहना चाहते हैं, जानकर भी वे ऐसे रहना चाहते हैं की जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो . गोया की ये सब उनके लिए कोई समस्या नहीं है , उनके घर जब तक ठीक है , सब ठीक है . बर्तोल्त ब्रेख्त  की कविता आज बार बार इन संदर्भों में याद आ रही है . ये सब लोग हमरे समय के बुद्धिजीवी है , जो अपने भाषण में , जो अपने लेखन में लोकतान्त्रिक है .
आपके आस - पास वो चम्गाद्रों  की तरह हमेशा लटके होते हैं ----- उनको पहचानिए , उनकी पोशाकें साफ़-सुथरी हुआ करती हैं. मेरे आस - पास तो हैं , उनकी पहचान तो हो गई है --- उनको ठीक से,  ठीक करना होगा .

Wednesday, January 20, 2010

मेरा विदर्भ , तुम्हारा विदर्भ - सबका विदर्भ

विदर्भ का इतिहास बहुत पुराना है.  मैं लगभग सात बरस   से यहाँ  हूँ . यह एक शांत इलाका है .
महाराष्ट्र  कहते ही हम केवल  मुंबई या फिर पूना को याद करते हैं , कम से कम विदर्भ  का तो कोई इलाका याद नहीं ही आता है . शिक्षा , स्वास्थ्य , और गरीबी से झुझता विदर्भ कई बर्ष से संगर्ष कर रहा है. अलग राज्य की मांग विदर्भ की एक जरूरी मांग है . कल सम्पूर्ण विदर्भ बंद रहा है.विदर्भ के लिए आये कुछ किया जाये .

skarlet

उपन्यास पर जो पोस्ट लिखा है , उसे मेरे साथी राकेश मिश्र ने लिखा है . जनबरी की गुनगुनी ठण्ड से वे अभी अभी जमशेदपुर से लौटे हैं -- उपन्यास के स्कारलेट की चर्चा उन्होंने की और मेरे आग्रह पर एक छोटा पोस्ट लिखा है . यह न भूलिए की राकेश मिश्र कहानीकार हैं और बाकि धुआं रहने दिया संग्रह के लेखक  .

एक उपन्यास के बारे में..

गोन विथ द विंड मार्गरेट मिशेल का उपन्यास है जो अमेरिका के गृह युद्ध के बीच एक मध्यवर्गीय  रूमानी दृष्टि से लिखा गया है.  किताब के ख़त्म होते होते हम पूरी तरह से नायिका स्कारलेट ओ हारा के प्रभाव में आ जाते हैं और उस से प्यार करने लग जाते हैं . राजनैतिक असहमतियों के वावजूद एक जब्बरदस्त किताब . स्त्री विमर्श वालों के लिए निहायत जरूरी . हैरत है की मिशेल ने फिर कोई उपन्यास नहीं लिखा.
 

Monday, January 18, 2010

क्या हैती पर अमेरिका कब्ज़ा करना चाहता है ?

रोटी के इंतजार में एक देश --- मेरे समय का देश है । अमेरिका की नज़र उस देश पर है । गरीबी और जहालत में ध्यान रखना अच्छे पडोसी की निशानी है । लेकिन अगर पडोसी की नज़र गरीबी में मदद करने के बहाने कब्ज़ा करना हो तो यह बात खतरनाक है । वेनेजुअला के राष्ट्रपति का यही आरोप है /
हैती की ८० फीसदी जनसँख्या गरीबी रेखा के नीचे है , हिंसा , व्र्रश्ताचार से परेशां हैती अब प्राकृतिक हादसा से परेशां है ।
हमारे आस पास कितनी दुनिया है --- हैती की दुनिया और २१ सदी की सबसे विकसित दुनिया अमेरिका । समाजवाद एक नारे के रूप में कब तक रहेगा ?

Sunday, January 17, 2010

स्त्री के बारे ---------------- ?

भारत में कई विस्वविद्यालय है , मैं जहाँ हूँ वह सबसे अलग है । अलग कैसे है हमारे विस्वविद्यालय का एक्ट आप चाहें तो देख सकते हैं ।
स्त्री को लेकर हमारा विस्वविद्यालय अलग तरह से सोचता है । उस सोच के बारे में अलग से बताने की गुंजाईश है। अभी इतना भर की -------- स्त्री के बारे में विश्वविद्यालय बहुत ठीक नहीं सोचता ।

एक कामरेड का विदा होना

अभी अभी जब हमसे एक कामरेड विदा हो रहा है , वह भी तब जब कामरेड होना इस पूंजी समय में मुस्किल होता जा रहा है --- बेहद दुखद है । हमें जोय्ती दा की बहुत याद आ रही है ।

Thursday, January 14, 2010

एक बात जो काम की है

रोज सोचता हूँ , गुनता हूँ --- कोई एक बात
सुबह उसको दुहराता हूँ
आज उसी को आपके सामने लाना चाहता हूँ
। दुनिया में कितनी चीजे हैं कहने को ---- कह पता हूँ कोई एक