यह समय वह समय ----- "एक जूता पैर में और एक हाथ" में का है . अपने विश्वाशघाती समय में , जब की अपने आचरणों में घोर अलोकतांत्रिक होते हुए , अपने लेखन में, अपने भाषण में लगातार लोकतान्त्रिक बने रहने के ढोंग के साथ जीता मनुष्य मेरे साथ / मेरे पास पसरा हुआ है . उसका यह पसरना किसी आक्टोपस की तरह का है जो अपने पंजे में सबकुछ को समेटते हुए रक्त-मांस को चूस कर छोड़ देता है ; असल में यह एक वर्गीय चरित्र की तरह हमारे समय में विकसित हो चुका है .
एक दूसरा वर्ग जो रीढ़ - विहीन है --- जिससे न ठीक से समर्थन में कुछ बोलना आता है और ना ही विरोध में . जिसके मुहं खोलने मात्र से घिन आने लगती है .
एक और वर्ग है --- जिसे रात - रात भर नींद नहीं आती है. उसके दिमाग में ऐसा क्या है जो उसे सोने नहीं देता -- ? उसके दिमाग में कुछ चीजे लगातार रात भर चक्कर लगाती है. जरूरी नहीं की वह मुक्तिबोध की तरह का आदमी हो , या उनकी तरह के वर्ग का हो .
आजकल वह आदमी मेरे दिमाग में लगातार चक्कर लगाता है ; और मैं यह कविता बार - बार पढ़ता हूँ -----------
" सच है कि मैं अब भी रोटियों से वंचित नहीं हुआ हूँ
मगर , यकीन करो , यह केवल संजोग है .
मैं कुछ भी करूँ , मुझे कोई अधिकार नहीं पेट भरने का .
यह एक संजोग है कि मैं बचा रह गया हूँ .
( जिस दिन तक़दीर दगा देगी , मैं भी गुजर जाऊंगा .)
मुझसे कहा जाता है , खावो और मौज करो, खुश रहो
कैसे खुश रहूँ , पिउं, मौज करूँ , ऐसे समय में .
यह रोटी का टुकड़ा जो मेरे हिस्से है ,
किसी भूखे का छिना हुआ कौर था ,
यह पानी का गिलास जो थामे हुए हूँ मैं हाथ में
प्यास से मरते हुए आदमी से
छिना ही तो गया था
और तब भी खाता और पीता हूँ .
( बर्तोल्त ब्रेख्त पर मेरे द्वारा लिखे जा रहे लेख का एक हिस्सा है )
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