Wednesday, February 24, 2010

मुझे मेरी अंगूठी लौटा दो .

देश के बदलते हुए सरोकारों  में अंगूठी कि बात एक बेकार बात है .
लेकिन जब अंगूठी किसी आस्था और विश्वाश  के साथ जुडा हो , और किसी पुरानी याद कि तरह जिस्म में पबस्त हो जाये तब अंगूठी कि बात एक जरूरी बात हो जाती है .
बजट के दौरान अंगूठी कि बात --- हमे हो सकता है थोडा भटकाए लेकिन यह भटकाव मेरे इर्द - गिर्द के लिए जरूरी है .
आज दोस्तों से बात होते होते ----- किसी पत्रिका  के आगामी अंकों के विशेषांक को लेकर होने वाली तयारी को लेकर होने लगी कि ---- अगला अंक पत्रिका का बेवफाई पर निकल रहा है  .
सोचना चाहिए हमे कि उर्दू ग़ज़लों कि बेवफाई जब हिंदी कहानियों  में आयेगी तो क्या होगा.
कितने लोग अपनी अंगूठी मागने के लिए कई -  कई किलोमीटर कि यात्रा करेगें .

Thursday, February 4, 2010

रामबिरछा कि याद -- जैसे पीपल कि याद .

न्यायालय का एक दिन , मेरे लिए इतनी परेशानी का रहा कि अपने गावों के अनाम लोगों कि याद करा गया , जो सतु , चबेना बंधकर दिन - दिन भर  न्यायालय कि चक्कर लगाते अपनी जिन्दगी कि शाम कर देते हैं .
अपने गावं के अनाम लोगों के नाम एक चिट्ठी -------- कोई  एक नाम के साथ

     प्रिय रामबिरछा ,
उम्मीद है तुम्हारी  बेटी   जिसका नाम मैं भूल गया हूँ ( भूल कि माफ़ी  मागंता हूँ )  अच्छी होगी . याद है तुम्हे , जब तुम कई बरसों बाद मुझे गावं के किराने कि दुकान में मिले थे , मैं तुम्हे  पहचान  नहीं पाया था , और तुम लगातार मुझे देखते जा रहे थे . और जब तुमने बताया कि --- भूल गए बाबु मैंने आपको अपने कंधे पर घुमाया है . मैं घबरा गया था ये सुनकर , ग्लानी हुई , और लगभग  हकलाते हुए मैंने तुमसे पूछा  था ---- कैसे हैं रामबिरछ जी ? और फिर तुमने ढेरों बात बताई थी गावं के बारे में , सब मैं सुनता जा रहा था ----- और सोचता जा रहा था --- बेकार में मैं शहर में रहता हूँ ( क्यूँ ना गावं में दुबारा आया जाये ). मुझे याद आ रहा था कि जब मैं अपने पिता जी  के साथ शहर आने के लिए अपने परिवार के साथ गावं से निकला था , तुम साथ - साथ स्टेशन तक आये थे , तुमने शराब पी रखी थी  , माथे पर सामान रखे तुम लड़खड़ा रहे थे . पीता जी से नशे कि हालत में कई बात किये जा रहे थे , जो तुम होश में कभी नहीं कर सकते थे . वो सब बात मैं आज तुम्हे  याद दिलाना चाहता हूँ  , लेकिन वो सब मिलकर बताना चाहता हूँ ( नहीं जानता कि तुम आज जीवित हो या नहीं ) . तुमने उस दिन स्टेशन पर बताया था कि कैसे  तुम आजकल एक केश में हर महीने कोर्ट जाते हो , कितना खर्चा  हो जाता है , कैसे  वो झूठा केश तुम्हे चैन से रहने नहीं देता , तुम कैसे भूखे पेट दिन - दिन भर  कोर्ट में चक्कर लगाते रहते हो , और निराश होकर शाम होते घर  पहुचते हो , किसी से कुछ कहने का मन नहीं करता है .
आज कई बरस के बाद रामबिरछा मेरा भी वही हाल है , तुमरे पास पैसे नहीं थे , झूठा केश था , सच कहूँ अगर तुम्हारे  पास पैसे भी होते ना उस दिन तब भी तुम भूखे ही रहते , क्यूंकि कोई भी इमानदार आदमी कोर्ट में खाना खा ही नहीं सकता  , जैसे कि मैं नहीं खा सका , पैसे होते हुए भी .

रामबिरछा मैं इस चिट्ठी को , बहुत भारी नहीं करना चाहता , बस इतना कि आज तुम्हारी बहुत  याद आ रही है , और याद इसलिए नहीं कि मैं बहुत तकलीफ महसुश  कर रहा हूँ , बल्कि यह कि उस दिन मैं तुम्हारी  तकलीफ क्यूँ नहीं जान सका . क्यूँ नहीं ?

                                                                                                                           तुम्हारा
                                                                                                                           --------------

Tuesday, February 2, 2010

--- और तब भी खाता और पीता हूँ

यह समय वह समय ----- "एक  जूता पैर में और एक हाथ" में का है . अपने विश्वाशघाती समय में , जब की अपने आचरणों में घोर अलोकतांत्रिक होते हुए , अपने लेखन में, अपने भाषण में लगातार लोकतान्त्रिक बने रहने के ढोंग के साथ जीता मनुष्य मेरे साथ / मेरे पास पसरा हुआ है . उसका यह पसरना किसी आक्टोपस की तरह का है जो अपने पंजे में सबकुछ को समेटते हुए रक्त-मांस   को  चूस कर छोड़  देता है ; असल में यह एक वर्गीय चरित्र की तरह हमारे समय में विकसित हो चुका है .
एक दूसरा वर्ग जो रीढ़ - विहीन है --- जिससे  न ठीक से समर्थन में कुछ बोलना आता है और ना ही विरोध में . जिसके मुहं खोलने मात्र से घिन आने लगती है .
एक और वर्ग है --- जिसे रात - रात भर  नींद नहीं आती है. उसके दिमाग में ऐसा क्या  है जो उसे सोने नहीं देता -- ? उसके दिमाग में कुछ चीजे लगातार  रात भर  चक्कर लगाती है.  जरूरी नहीं की वह मुक्तिबोध की तरह का आदमी हो , या उनकी तरह के  वर्ग का हो . 
आजकल वह आदमी मेरे दिमाग में लगातार चक्कर लगाता है ; और मैं यह कविता बार  - बार पढ़ता हूँ -----------

" सच है कि मैं अब भी रोटियों से वंचित नहीं हुआ हूँ
मगर , यकीन करो , यह केवल संजोग है .
मैं कुछ भी करूँ , मुझे कोई अधिकार नहीं पेट भरने का .
 
यह एक संजोग है कि मैं बचा रह गया हूँ .
( जिस दिन तक़दीर दगा देगी , मैं भी गुजर जाऊंगा .)
मुझसे कहा  जाता है , खावो और मौज करो, खुश रहो
कैसे  खुश रहूँ , पिउं, मौज करूँ , ऐसे  समय में .
यह रोटी का टुकड़ा जो मेरे हिस्से है ,
किसी भूखे का छिना  हुआ कौर था ,
यह पानी का गिलास जो थामे हुए हूँ मैं हाथ में
प्यास से मरते हुए आदमी से
छिना ही तो गया था

और तब भी खाता और पीता हूँ  .

                                                                    
( बर्तोल्त ब्रेख्त पर मेरे द्वारा लिखे जा रहे लेख का एक हिस्सा है )